क्या सोंच रहा इंसान

 क्या क्या सोंच रहा इंसान सोंच रहा इंसान,

तू है क्यों इतना परेशान,
मंजिल है तेरी यही कहीं,
ना कुछ गलत सब है सही,
क्या पायेगा निरर्थक खो के प्राण
क्या सोंच रहा इंसान ।।

सब दिन वही है वही रात,
सुनने को मिलेंगी बहुत बात,
कर अनसुना तू चलता चल,
होगा मीठा तू बहता चल,
होगा पूरा तू लगा दें जान
क्या सोंच रहा तू  इंसान ।।

तेरे साहस का कोई छोर नहीं,
तेरे जैसा चारों ओर नहीं,
तू क्या है सबको दिखा दें आज
मंजिल को पा के दिखा आज
मत सोंच कि तू है अंधकार
क्या सोंच रहा तू इंसान

सारे भय, संसय छोड़ दें तू,
तूफानों का रुख मोड़ दे तू,
मंजिल है तेरी, है मार्ग तू,
छोड़ दे सारे कुमार्ग तू,
जलेगा एक दिन दीपक समान
क्या सोंच रहा तू इंसान ।।।

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